एक बूँद सहसा उछल जाती है, और रुके हुए पानी में गतिमान तरंग बनती हैं.. एक ऐसा ही प्रयास है यह....
9 Must-Read Essays and Journalism Classics from The Seen and the Unseen Podcast
Books on Ideas That Will Make You Smarter — Curated from The Seen and the Unseen Podcast
- The Elephant in the Brain — Kevin Simler & Robin Hanson
- Human: The Science Behind What Makes Your Brain Unique — Michael S. Gazzaniga
- Thinking, Fast and Slow — Daniel Kahneman
- The Moral Arc: How Science Makes Us Better People — Michael Shermer
- Better Never to Have Been — David Benatar
- The Difficulty of Being Good — Gurcharan Das
- The Expanding Circle: Ethics, Evolution, and Moral Progress — Peter Singer
- On Bullshit — Harry Frankfurt
- Ideas: A History of Thought and Invention, from Fire to Freud — Peter Watson
- The Hedgehog and the Fox — Isaiah Berlin
- The Open Society and Its Enemies — Karl Popper
- The Logic of Scientific Discovery — Karl Popper
- History Of Western Philosophy — Bertrand Russell
- History of European Morals — W. E. H. Lecky
- Crowds and Power — Elias Canetti
- The Crowd: A Study of the Popular Mind — Gustave Le Bon
- The Argumentative Indian — Amartya Sen
- Why Read the Classics? — Italo Calvino
- Testaments Betrayed — Milan Kundera
- Beyond Words: Philosophy, Fiction, and the Unsayable — Timothy Cleveland
3rd Letter to Teen Taal (तीन ताल को तृतीय ख़त)
तीन ताल के सभी साथियों को जय हो, जय हो, जय हो! छः संख्या भारतीय मिथकों में पूरापन और संतुलन का निशान मानी जाती है। तीन ताल की छटा छः ऋतुओं से बनती है जिसे ये छह महानुभाव बनाते हैं - कमलेश ताऊ, कुलदीप सरदार, आसिफ़ खान चा, पाणिनि बाबा, जमशेद भाई और संयोजक अतुल जी| इन सभी को मेरा नमन!
तीन ताल क्यों सुने ? नए श्रोता लोगों से बस कहना चाहूंगा कि तीन ताल का भौकाल एकदम टाइट है क्यूंकि जिस ज़माने में जुबान और उसूल की कोई कीमत नहीं रही, वहां तीन ताल उसी ज़माने की छोटी-छोटी परेशानियों, समाज, राजनीति, और निजी अनुभवों पर खुलकर और दिलचस्पी से बातचीत करता है!
ये चिठ्ठी पीर बाबा के दमके हुए पानी का लाइट मोड अर्थात बीयर पीकर लिख रहा हूं, जो लिखूंगा वह सच लिखूंगा, सच के सिवा कुछ नहीं लिखूंगा। खबर ड्रोन की तरह उड़ते उड़ते पता चली की लखनऊ की धरती पर तीन ताल के महारथी लोगों का ज़मावड़ा होने वाला है ! लखनऊ की जनता की किस्मत से रस्क करते करते, उनको बहुत बधाई.
फिर मन में लगा जैसे लखनऊ ही सबकी पहली पसंद हो और कानपुर बस खामोशी से किनारे हो रहा है। नेपाल में अगर जनरेशन- ज़ी (Gen Z) सड़कों पर उतरकर विरोध दर्ज करा सकती है तो हम अधेड़ लोग कुछ क्यों नहीं कर सकते? हमें तो केवल चिट्ठी लिखनी है, कौन-सा हमें आज तक कार्यालय पर हमला करना है। अहिंसावादी देश में पत्र-ग्यापन ही विरोध प्रकट करने का सबसे सही और लोकतांत्रिक तरीका होता है|
कहने वाले कहते हैं, लखनऊ को तरजीह देना, ये पक्षपात बहुत पुराना है । मैं फिर भी तीन ताल को बेनिफिट ऑफ़ डाउट देता हूँ , हो सकता है राज्य सरकार का निमंत्रण हो ! लखनऊ बनाम कानपुर — जब बात हो दोनों शहरों की, तो मज़ाक का पिटारा खुल जाता है। अरे भई, लखनऊ और कानपुर की बात ही कुछ ऐसी है जैसे दो बड़े कलाकारों की भिड़ंत हो, एक जहाँ तहज़ीब और तंज़ से लबरेज़, तो दूसरा ज़मीन से जुड़ा, पसीने और उद्योग की गंध लिए। तो आप कहें, कौन बेहतर? मेरा तो मानना है ये सवाल वैसा है जैसे गोलगप्पे में मिर्च कम या ज्यादा, स्वाद तो दोनों ही लाजवाब हैं! दोनों शहर अपनी-अपनी धुन में मग्न हैं !
आज मेरे आधार कार्ड पे लखनऊ का पता है और ठिकाना बेंगलुरु है पर कानपूर से पुराना रिश्ता है। परदेस में जब किसी गाड़ी पर UP78 लिखा दिख जाए तो इस कानपुरिया दिल में बिजली-सी कौंध जाती है ! इसलिए हम लोग जो कानपुर छोड़ आए, कहीं दूर से भी कानपुर की मिट्टी की खुशबू फैलाते हैं, और उन यादों की छांव में सदियों तक तरोताजा रहते हैं।
कहते हैं ना कि अपने तो अपने ही होते हैं ! जब भी कानपुर से गुजरता हूँ, दिल में बसा हुआ पुराना वक्त याद आने लगता है। मानो बचपन की गली में फिर से कदम रख रहा हूं, जहां से पला-बढ़ा हूं । मैं खुद 1994 से 2004 तक किशोरावस्था में यहाँ रहा हूँ|उस समय की कोचिंग मंडी की हलचल और मोहल्ले का माहौल आज भी मन को छू जाता है।
वो जमाना भी बड़ा गजब था, जब सड़क पर सुअर और ऑटो विक्रम दोनों मिल के राज किया करते थे। 90 के दशक में यहां की कहानी कुछ ऐसी थी कि जैसे ये सुअर जनाब शहर के असली मालिक हों। हमारे कानपूर के मेयर अनिल कुमार शर्मा थे, जिन्होंने उस सुअर की गैंग को खदेड़ा। कानपुर वाले बहुत कुकुर प्रेमी होते थे। कानपुर के ग्रीन पार्क स्टेडियम में क्रिकेट मैच के दौरान कुत्तों का मैदान में घुस जाते थे, जब भी ऐसा होता है, तो लगता है जैसे कुत्ते कह रहे हों: "यार, तुम लोग कब से एक ही गेंद के पीछे भाग रहे हो? थोड़ी देर हमें भी खेलने दो! हम भी तो स्टार परफॉर्मर हैं इस स्टेडियम के!" इकाना स्टेडियम ने यह मज़ा भी छीन लिया।
जब भारत में ब्लॉग लिखने की परंपरा शुरू हुई, लोग अपने-अपने अनुभव, यादें और विचार पहली बार खुले मंच पर रखने लगे। उसी दौर में हमने भी कलम उठाई और सबसे पहले लिखा तो अपने कानपुर के बारे में | कानपुर माहात्म्य पर जब कभी भी फुर्सत में चर्चा हो, तो निवेदन है दशकों पहले हमारे द्वारा लिखा गया कानपूर श्रृंखला का दस्तावेज़ पढ़ियेगा।
हम कानपुर वाले भी 'तीन ताल' का हिस्सा हैं, हमारे दिल भी इसी धुन पर धड़कते हैं। इसलिए, एक बार कानपुर को भी मंच पर बुलाइए, ताकि हर आवाज़ बुलंद हो सके और हम भी कह सकें — कसम कानपुर की, गर्दा उड़ा देंगे ! हम चाहते हैं कि तीन ताल के तीनों शिकारी स्वादिष्ट समोसे, ज़िंदादिल ज़िंदगी को महसूस करें और कानपुर की अनोखी कहानियों को अपने मजाकिया अंदाज़ में पेश करें। पत्र इन प्रसिद्ध निमंत्रण की पंक्तियों के साथ खत्म करता हूँ : भेज रहा हूँ स्नेह निमंत्रण, प्रियवर तुम्हें बुलाने को। हे मानस के राजहंस, तुम भूल न जाना आने को।।
असल में, सोच-समझ कर लिखना जरूरी होता है, लेकिन इस बार जल्दबाजी में कुछ कहा गया है, क्यूंकि सुरूर छा रहा है। तीन ताल के सभी साथियों को मेरा कोटि-कोटि प्रणाम। जय हो, जय हो, जय हो!
--- यायावर ( टीटी स्टाफ)
2nd Letter to Teen Taal (तीन ताल को द्वितीय ख़त)
तीन ताल के सभी साथियों को जय हो, जय हो, जय हो! कमलेश ताऊ, कुलदीप सरदार और आसिफ़ खान चा को मेरा नमन! "जस मतंग तस पादन घोड़ी, बिधना भली मिलाई जोड़ी" — ये लोक कहावत का आशय है कि जैसे हाथी को उसके पांव के अनुसार घोड़ी मिलनी चाहिए, उसी तरह विधाता समान लोगों की जोड़ी बना देता है। मेरे जैसे काम में उलझे हुए लोगों का तीन ताल का दर्शक बनना सुंदर संयोग है !
मेरे में लखनऊ की किस्सागोई नहीं है ना ही है हरियाणा का ठेठ अंदाज़ ! पर १०० -२०० घण्टे सुनते सुनते लिखने का मन हो ही गया। परसाई जी की बात याद आयी : जो प्रेमपत्र में मूर्खतापूर्ण बातें न लिखे, उसका प्रेम कच्चा है, उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए पत्र जितना मूर्खतापूर्ण हो, उतना ही गहरा प्रेम समझना चाहिए। अतः बहुत प्रेम से तीन ताल को लिखा प्रथम ख़त लिखा जो प्रोग्राम में पढ़ा नहीं गया, ना जाने किस गलियारों में खो गया। मन में बहुत तीस उठी। कई लेखक मानते हैं कि संपादकीय अस्वीकृति व्यक्तिगत पसंद या बाजार की मांग के कारण होती है, पर मुझ नौसिखिए को पता है कि यह अस्वीकृत चिठ्ठी में बकैती की कमी है।
हिंदी साहित्य में कवियों और संतों ने अस्वीकृति को केवल अंत नहीं, बल्कि आत्म-विकास का द्वार माना है। अस्वीकृति मनुष्य के सबसे गहरे और कभी कभी कटु अनुभवों में से एक होती है। फिर भी, यही अस्वीकृति हमें आत्मबल और धैर्य का सबसे गहरा पाठ पढ़ाती है। जैसे तीन ताल में अपेक्षित चिट्ठी नहीं पढ़ी जाती है तो यह अस्वीकृति एक मन में अधूरापन छोड़ देती है। लेकिन इसी अधूरेपन में एक नई चिठ्ठी का बीज छिपा होता है।
"मेरे पास दो रास्ते थे – ‘हारे को हरिनाम’ और ‘नीड़ का निर्माण फिर से’! सो उम्मीद का रास्ता चुनकर द्वितीय ख़त लिख रहा हूँ। यह द्वितीय कह रहा हूँ दूसरा नहीं क्यूंकि पहला प्रेम हो या पहला पत्र अद्वितीय होता है ! खान चा की गवाही चाहूंगा !
खैर क़िस्सागोई मुझसे आती नहीं और बातों को सँवारने का हुनर नहीं है मेरे पास, बस जैसे मन में आता है वैसे ही उगल देता हूँ। पिछली चिट्ठी धीरे-धीरे आंच पर पकाए हुए मटन जैसा थी, लेकिन यह लेख तो फास्ट फूड है, जो एक समझदार मगर थोड़ा तड़कते हुए अहंकार के कारण जल्दी-जल्दी तैयार हो गया है। इस लेख में थोड़ा घमंड भी मिला है, जिससे बातों की गहराई कुछ कम रह गई है।
मुझे तीन ताल क्यों पसंद है? तीन ताल मेरे लिए एक थियेटर ऑफ़ द एब्सर्ड है ! यह एक ऐसा संवाद है, जो अक्सर साधारण बातों को भी असामान्य बना देता है। लगता है जैसे हम लोग मित्रों से चाय की दुकान या नाई की दूकान जैसे गैर-औपचारिक माहौल में बैठे हंसी ठिठोली कर रहे हैं।
लिखने की तो नहीं, मेरी पढ़ने की बहुत आदत थी । मेरी शरारतों के बावजूद घरवालों की कोशिशों का ही नतीजा था कि तक़रीबन सात साल से रविवार अख़बार का बच्चों का पन्ना, चंपक, सुमन सौरभ, नंदन, बालहंस, नन्हे सम्राट और कामिक्स पढ़ने की आदत हो गयी थी । बचपन में दादी और बाबा से अनगिनत कहानी सुनी ! उन दिनों को याद करते हुए कई बार मैं अपने से पूछता हूँ - हिंदी के प्रति प्यार के पीछे सबसे बड़ा प्रेरक तत्त्व क्या था ? मुझे एक ही जवाब मिलता है - वे मेरे बचपन के दिन थे और मेरे बेशुमार कहानी सुनने के सपने थे।उसी समय में हिंदी से मन, वचन और कर्म से भावनात्मक लगाव हो गया
अब हिंदी का प्रोफेशनल उपयोग जीवन में नहीं है। यक़ीन करें, मैंने हिंदी में कहानी सुनना और सपने देखना अब भी नहीं छोड़ा है! ऑनलाइन के ज़माने में भी कोशिश करके साल १-३ किताब हिंदी में जरूर पढता हूँ। आज जब मैं "तीन ताल" के पॉडकास्ट में ताऊ, चा और सरदार की बातें सुनता हूँ, तो मेरे मन में बचपन की मीठी यादें, हिंदी भाषा की मोहब्बत और घर के बुजुर्गों की छवि एक साथ जीवंत हो उठती है | हाल ही में बीते हुए हिंदी दिवस पर सभी हिंदीभाषी और हिंदी प्रेमियों को हार्दिक शुभकामनाएं।
बाकी तो राजनैतिक दलाली और घटिया दलीलों से भरे न्यूज़ के दौर में बकवास सुनना एक ब्रह्मज्ञान प्रतीत होता है। अब लगता है'क्या बकवास है' या तो निहिलिज़्म की तरफ पलायन करते हुए लोगों का जाप है या फिर जेन ज़ी में क्रांति के बीज बोते हुए ताऊ का महामंत्र ! जय हो, जय हो, जय हो!