तीन ताल के सभी साथियों को जय हो! हो जय हो!
कमलेश ताऊ, कुलदीप सरदार और आसिफ़ खान चा को मेरा नमन! मेरा मुकाम शहर दिल्ली है और जड़ें आजमगढ़ से जुड़ी हैं।
मेरे लिए 'तीन ताल' की चर्चा व्यंग्य, ज्ञान और पुरानी यादों की एक त्रिपथगा है। एक-एक एपिसोड अलग-अलग रंगों से भरा रहता है—कभी पाणिनी बाबा की विद्वता झलकती है, कभी नास्त्रेदमस जैसा सत्य कहने वाले ताऊ हमें चौंका देते हैं, तो वहीं रोमांटिक खान चा अपनी नजाकत और मोहब्बत भरे लहजे से दिल जीत लेते हैं। कुलदीप का संचालन पूरे पॉडकास्ट को एक अलग चमक देती है।
इन एपिसोड्स में Bizzare उत्तेजक खबरों से लेकर भू-राजनीतिक (geopolitical) विश्लेषण, और स्थानीय—पूर्वांचल, वाराणसी, कानपुर, इलाहाबाद, दिल्ली, नोएडा, लखनऊ तक की घनघोर चर्चाएं सुनना अद्भुत अनुभव है। ऐसा लगता है जैसे छोटी-बड़ी सारी दुनिया तीन ताल की जमघट पर सिमट आई हो। सिनेमा, पुराने गाने और दुध्दी के किस्से तो खान चा की स्पेशलिटी उभार लाते हैं। जब-जब सरपंच और अन्य मेहमान इसमें जुड़ते हैं, चौपाल का मज़ा कई गुना बढ़ जाता है।
हमारे जीवन में काम, आलस्य और आराम में संतुलन होना चाहिए। मेरे जीवन को आलस बहुत प्रभावित करता है। मेरे हिसाब से प्रारब्ध की पराकाष्ठा और पुरुषार्थ का लोप आलस है! आलस्य को मैं एक अवरोध के रूप में नहीं देखता, बल्कि यह जड़ता की एक अवस्था है, जिसे न्यूटन ने परिभाषित किया था। इसलिए लिखते-लिखते यह आर्टिकल एक साल लग गए और मुकाम दिल्ली से बेंगलुरु हो गया।
तीनताल एक जादुई टाइम मशीन है, जो हमें 1970 से 2000 के सुनहरे दौर की यादों में ले जाता है। नॉस्टैल्जिया एक अजीब सी फीलिंग होती है, बढ़ती उम्र के साथ यादों को सुनकर जीवन में शक्कर सा घुल जाता है । यह पॉडकास्ट कुछ जिया हुआ लम्हा, कुछ सुना हुआ किस्सा और बहुत से बिखरे हुए पलों को समेट देता है।
सच कहूं तो मेरी ऑफिस यात्रा और घर वापसी में तीन ताल मेरी थकान हल्की कर देता है। कभी हंसी, कभी गहन चिंतन, तो कभी आध्यात्मिक सुकून—सब इसमें मिलते हैं। चर्चाओं की सहजता और शैली इतनी आत्मीय है कि यह सिर्फ खबरें या विचार-विमर्श का माध्यम नहीं, बल्कि अपनेपन भरा बकैती का अड्डा लगता है। आप सब जिस सहजता से आलस्य, आराम, या फिर संघर्ष जैसे गहरे दार्शनिक पहलुओं से लेकर हलकी-फुलकी नोकझोंक और स्थानीय गप तक पहुँचते हैं, वह अद्वितीय है। यह मेरे जैसे प्रवासी (बिदेशिया) के लिए सिर्फ पॉडकास्ट नहीं, बल्कि जीवन, विचार और अनुभवों का एक अनवरत मेला है, जिसमें हर बार कुछ नया सीखने और जीने को मिलता है। एपिसोड में अजीबोगरीब विषयों के बारे में हुई बातों से दिमाग में सच में चकरघिन्नी सी होने लगता है।
सालों पहले एक जापानी फिल्म देखी थी, "Women in the Dunes" (1964)। यह फिल्म एक ग्रामीण रेगिस्तानी इलाके में फंसे एक व्यक्ति की कहानी है। फिल्म में एक शहरी कीट विज्ञानी अपने शहरी जीवन की आपाधापी से दूर एक रेगिस्तानी इलाके में कीड़ों की खोज करने जाता है। वहां उसे एक गाँववासी एक रेत के गड्ढे में एक महिला के साथ रात बिताने का सुझाव देता है। मगर अगली सुबह नायक पाता है कि उसे इस गड्ढे में बंधक बना लिया गया है। उसे मजबूरन इस महिला के साथ रेगिस्तान की रेत साफ करने का काम करना पड़ता है ताकि उनका घर रेत में दब न जाए। जीवन की अर्थहीन दिनचर्या और अस्तित्व का संघर्ष उस व्यक्ति को ऐसे जाल में फंसा देता है, जिसमें वह बिना किसी वास्तविक प्रगति के उलझा रहता है। फिल्म देखते-देखते उसके नायक के साथ मुझे भी धीरे-धीरे एहसास होता है कि उसका यह संघर्ष हमारी रोज़मर्रा की जिंदगी जैसा है—एक अंतहीन और अर्थहीन कार्य, जिसमें वह नायक की तरह हर रोज़ बंधक बनता चला जाता है।
रोजमर्रा के जीवन में संघर्ष, आलस्य और आराम के बीच एक अजीब सा संतुलन बनता है। आलस्य तो खो ही गया है और आराम की यह तलाश एक अनवरत चक्र में फंसी रखी है। आलस सुस्ती, अनिच्छा, और शिथिलता नहीं है, यह भूपेंद्र सिंह द्वारा गाया गया "दिल ढूँढ़ता है फुर्सत के रात दिन" है, जिस आलसी पल में, मन और तन निष्क्रिय होता है।
इसी आलस और अर्थहीन दिनचर्या के बीच कोई भी एपिसोड कहीं से भी सुन लो, इतना यह आत्मसात हो गया है। मोहम्मद रफ़ी के गीत "तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है" को मैं तीन ताल को ही समर्पित करता हूँ।
तीन ताल के सभी रचनाकारों और दुनिया भर में फैले साथियों को मेरा कोटि-कोटि प्रणाम। कभी कभी किताबों पर भी सुझाव दिया करिये । ऐसे ही आगे भी आप लोग जीवन, विचारों और अनुभवों की सरल, सुबोध और सजीव चर्चा करते रहें। जय हो, जय हो, जय हो!
--- यायावर ( टीटी स्टाफ)
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गुस्ताख़ी माफ पर समर्पित एक तुकबंदी:
तीन ताल से पहले सत नहीं था,
असत भी नहीं,
इंटरनेट भी नहीं, 5जी भी नहीं था।
छिपा था क्या? कहाँ? किसने ढका था?
उस पल तो अगम अतल सोशल मीडिया भी कहाँ था।
तीन ताल का कौन है करता?
कर्ता है या विकर्ता?
ऊँचे आजतक रेडियो में रहता,
सदा अतुल जी बना रहता।
नौरंगी सचमुच में जानता,
या नहीं भी जानता,
है किसी को नहीं पता,
नहीं पता, नहीं है पता।
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