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Wednesday, October 22, 2025

4th Letter to Teen Taal (तीन ताल को चौथा ख़त लिखा )

तीन ताल के सभी साथियों को जय हो, जय हो, जय हो! मेरी चौथी चिट्ठी आप सबके मानसिक स्वास्थ्य को समर्पित है! किसी तीन तालिये  ने कहा था "तीन ताल के घाट पे, भईया, बकबक की भीड़, गपशप के लिए जुट गए, राजा, रंक, फकीर" ! राजा, रंक, फकीर के साथ इस बार कुछ लिबरल्स ने तीन ताल को सुना। उनको बहुत बहुत साधुवाद। यह विविधता हमारे समाज की जटिलता को दर्शाती है, जहाँ हर आवाज़, चाहे वह राजा हो या आम आदमी, संवाद की साझा धुन में एक साथ जुड़ती है।

आज मैं बात करूँगा उस चउतरफा चर्चा की, जहां मानसिक स्वास्थ्य की व्यथा और चिंतन ने ताऊ-वादी दर्शन और उदारवादी विचारों के बीच टकराव को जन्म दिया!  कमलेश ताऊ, आसिफ़ ख़ांचा और कुलदीप सरदार मेंटल हेल्थ पर चर्चा कर रहे थे  और  ताऊ ने  दीपिका पादुकोण को भारत की पहली मेंटल हेल्थ एम्बेसडर बनाए जाने पर तंज कसा कि यह सब एक बड़प्पन दिखाने का तरीका है, और थेरेपी को अमीरों का स्टेटस सिंबल बताया। इससे सोशल मीडिया पर लोग इतने खफा हुए जैसे किसी ने रंगदारी नहीं दिया हो! लिबरल्स ने शर्मनाक घोषित क़िया, एपिसोड कैंसिल कराने और बायकॉट की धमकी दे डाली। फिर भी कुछ  हुआ नहीं। तीन ताल के सुनाने वाले ठसक से बड़े और मिजाज से प्यारे  होते  हैं  इसलिए वो ताऊ के साथ खड़े मिले । जन जन का नारा है, तीन ताल हमारा है का उदघोष सोशल मीडिया पर गूंज उठा।

पहले तीन ताल की मूल भावना हास्य रस है और ये बैठकी ग़ज़ब का मंजर है! एक तरफ़ गांधी जी की गंभीर फोटो, दूसरी ओर मर्लिन मुनरो की मुस्कुराती तस्वीर, और बीच में तीन ताल पॉडकास्ट का स्टूडियो — जहाँ विचार ऐसे टकरा रहे हैं जैसे समोसे की प्लेट पर चटनी और मिर्च। गांधी जी के पीछे लिखा है "सादा जीवन, उच्च विचार", और मुनरो की तरफ़ से झलक रहा है "ग्लैमर भरा विचित्र संसार". बीच में होस्ट लोग बैठे हैं और तीन ताल का ध्वज-पताका ऐसे फहरा रहा है मानो विचारों का स्वतन्त्रता संग्राम चल रहा हो।

तीन ताल, सादा जीवन और बिज़ारे विचार का तुग़लक़ी संगम है। ताऊ-वादी दर्शन हर समस्या को तुगलकी विचार से सोचने के नाम है ! और ताऊ-वादी विचारक विरोधों से अपनी दिशा नहीं बदला करते। और जो हर रोज़ रुख़ और तवज्जो पलटते रहते हैं, वे ताऊ-वादी विचारक नहीं होते। ताऊ का सोशल मीडिया पे अपने विचार पे अडिग रहते देखना अच्छा लगा, एक एक जुमला याद आया, "वो उसूल ही क्या जिसकी कीमत ना चुकानी पड़े! 

जब  फ्री स्पीच  का  ध्येय  रख  कर  अति गंभीर से लेकर अनौपचारिक तक सब पे बात हो रही  है,  ये है रुदाली रुदन क्यों ! रूढ़िवादी कहते हैं धर्म पे व्यंग्य न बोलिये और लिबरल्स बोलते हैं मेन्टल हेल्थ पे व्यंग्य न बोलिये। आज लिबरल्स हों या रूढ़िवादी — दोनों पक्षों ने विचार को नारे में बदल दिया है। जब भाषा केवल दलीलों का हथियार बन जाती है, तब स्वतंत्रता मर जाती है। असली बोलने की क्षमता वही है जो किसी खेमे में रहते हुए भी उसके झूठ को पहचान सके। सोशल मीडिया पर कितनों को मैं सूरज समझ बैठा था, बाद में मालूम हुआ वो तो महज़ दिया निकले। कभी रंग बदलते हैं, कभी रुख़। मूल बात यह है कि कुछ लोगों की नैतिकता ऐसा आईना बन गई है, जिसमें हम स्वयं को चमकदार और श्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं, पर दूसरों की खामियों को ही देखते हैं। बाकी मेरा आपका जीवन समाप्त हो जाएगा, आउटरेज ख़त्म नहीं होगा।

वैसे  देश में मानसिक स्वास्थ्य पर बात करने पे हिचक है I मेन्टल हेल्थ को नकार देनी वाली बातें अक्सर आकर्षक लगती हैं, लेकिन उनके असली मायने और वास्तविकता करीब जाकर ही समझ आती है यहाँ हर समस्या का समाधान है — थोड़ा पॉज़िटिव सोचो और चाय पी लो। विशेषज्ञों की जगह अब मोटिवेशनल स्पीकर बैठेंगे, जो हर तीसरे वाक्य में कहेंगे, “तुम्हारा मन कमजोर नहीं, तुम्हारा वाईफाई स्लो है |

बुजुर्गों ने कहा है... चिंता चिता समान है! — बस फर्क इतना है कि अब ये चिता वाई-फाई से जलती है। लोग सुबह उठते ही अपने “स्ट्रेस लेवल” को फिटनेस बैंड की तरह ट्रैक करते हैं, नींद नहीं आती तो मेडिटेशन ऐप डाउनलोड कर लेते हैं, और फिर उसी ऐप की रिव्यू पढ़कर और चिंतित हो जाते हैं। ऐसा लगता है मानो मानसिक स्वास्थ्य अब कोई आत्मिक यात्रा नहीं, बल्कि सब्सक्रिप्शन प्लान हो गया है — महीना दो, चिंता लो, चिता स्थगित!  

ऊपर से विज्ञापन के तौर पर ब्रांड एंबेसडर बनाए जाने के मुद्दे पर व्यंग्यपूर्ण और गंभीर चर्चा को भी कुछ ज्वलनशील लोगों तटस्थता की जगह उग्रता से ले लेते हैं |  तीन ताल का अनुभव, मानो अंतर्मन की नदी में प्रवाहित एक सतत संवाद है, जिसमें  हर विचार्रों की  हर लहर — चाहे वह गंभीर हो या चुटीली, पवित्र हो या सांसारिक, सतही हो या गहरी, आपके दिमाग को  स्फूर्ति देती है | ऐसा सुनना सिर्फ बातें सुनना नहीं, बल्कि उनकी सोच और महसूस को समझना है।  जब हम ताऊ को ध्यान से, लंबे समय तक सुनें, तो ऐसा लगता है जैसे वो हमारे मन में उतर गए हों।  

यह संवाद, अपनी विविधता और गहराई में समृद्ध, सिर्फ बातचीत नहीं बल्कि सहानुभूति और समझ का जीवंत आदान-प्रदान बन जाता है। इस चौथे खत के अंत में बस यही कहना है कि आप लोगों की जुगलबंदी शानदार हैं। आने वाले एपिसोड में हाथ जोड़कर अनुरोध है कि आप हिंदी क्षेत्र से दूर देश बिदेश में  रह रहे हिंदी भाषियों के जीवन-संघर्ष और मानसिक स्वास्थ  पर भी प्रकाश डालें—क्योंकि बहुत से तीन तालिये दूर- सदूर से आपको सुनते हैं। तीन ताल के सभी साथियों को मेरा कोटि-कोटि प्रणाम।  जय हो, जय हो, जय हो! 

--- यायावर  ( टीटी स्टाफ)

Friday, September 26, 2025

3rd Letter to Teen Taal (तीन ताल को तृतीय ख़त)

तीन ताल के सभी साथियों को जय हो, जय हो, जय हो!  छः संख्या भारतीय मिथकों में पूरापन और संतुलन का निशान मानी जाती है। तीन ताल की छटा छः ऋतुओं  से बनती है जिसे ये छह महानुभाव बनाते हैं - कमलेश ताऊ, कुलदीप सरदार, आसिफ़ खान चा, पाणिनि बाबा, जमशेद भाई और संयोजक अतुल जी| इन सभी को मेरा नमन!  

तीन ताल क्यों सुने ? नए श्रोता लोगों से बस कहना चाहूंगा कि तीन ताल का भौकाल एकदम टाइट है क्यूंकि जिस ज़माने में जुबान और उसूल की कोई कीमत नहीं रही, वहां तीन ताल उसी ज़माने की छोटी-छोटी परेशानियों, समाज, राजनीति, और निजी अनुभवों पर खुलकर और दिलचस्पी से बातचीत करता है!

ये चिठ्ठी पीर बाबा के दमके हुए पानी का लाइट मोड अर्थात बीयर पीकर लिख रहा हूं,  जो लिखूंगा वह सच लिखूंगा, सच के सिवा कुछ नहीं  लिखूंगा। खबर ड्रोन की तरह उड़ते उड़ते पता चली की  लखनऊ की धरती  पर  तीन  ताल  के  महारथी  लोगों  का  ज़मावड़ा  होने वाला है ! लखनऊ की  जनता  की  किस्मत  से  रस्क  करते  करते, उनको  बहुत  बधाई.

फिर मन में लगा जैसे लखनऊ ही सबकी पहली पसंद हो और कानपुर बस खामोशी से किनारे  हो रहा है। नेपाल में अगर जनरेशन- ज़ी (Gen Z) सड़कों पर उतरकर विरोध दर्ज करा सकती है तो हम अधेड़ लोग कुछ क्यों नहीं कर सकते? हमें तो केवल चिट्ठी लिखनी है, कौन-सा हमें आज तक कार्यालय पर हमला करना है। अहिंसावादी देश में पत्र-ग्यापन ही विरोध प्रकट करने का सबसे सही और लोकतांत्रिक तरीका होता है|

कहने वाले कहते हैं,  लखनऊ को तरजीह देना, ये पक्षपात बहुत पुराना है । मैं फिर भी तीन ताल को बेनिफिट ऑफ़ डाउट देता हूँ , हो सकता है  राज्य सरकार का निमंत्रण हो ! लखनऊ बनाम कानपुर — जब बात हो दोनों शहरों की, तो मज़ाक का पिटारा खुल जाता है। अरे भई, लखनऊ और कानपुर की बात ही कुछ ऐसी है जैसे दो बड़े कलाकारों की भिड़ंत हो, एक जहाँ तहज़ीब और तंज़ से लबरेज़, तो दूसरा ज़मीन से जुड़ा, पसीने और उद्योग की गंध लिए।  तो आप कहें, कौन बेहतर? मेरा तो मानना है ये सवाल वैसा है जैसे गोलगप्पे में मिर्च कम या ज्यादा, स्वाद तो दोनों ही लाजवाब हैं! दोनों शहर अपनी-अपनी धुन में मग्न हैं !

आज मेरे आधार कार्ड पे लखनऊ का पता है और  ठिकाना बेंगलुरु है पर कानपूर से पुराना रिश्ता है। परदेस में जब किसी गाड़ी पर UP78 लिखा दिख जाए तो इस कानपुरिया दिल में बिजली-सी कौंध जाती है ! इसलिए हम लोग जो कानपुर छोड़ आए, कहीं दूर से भी कानपुर की मिट्टी की  खुशबू फैलाते हैं, और उन यादों की छांव में सदियों तक तरोताजा रहते हैं।

कहते हैं ना कि अपने तो अपने ही होते हैं ! जब भी कानपुर से गुजरता हूँ, दिल में बसा हुआ पुराना वक्त याद आने लगता है। मानो बचपन की गली में फिर से कदम रख रहा हूं, जहां से पला-बढ़ा हूं । मैं खुद 1994 से 2004 तक किशोरावस्था में यहाँ रहा हूँ|उस समय की कोचिंग मंडी की हलचल और मोहल्ले का माहौल आज भी मन को छू जाता है। 

वो जमाना भी बड़ा गजब था, जब सड़क पर सुअर और ऑटो विक्रम दोनों मिल के राज किया करते थे। 90 के दशक में यहां की कहानी कुछ ऐसी थी कि जैसे ये सुअर जनाब शहर के असली मालिक हों। हमारे  कानपूर के  मेयर अनिल कुमार शर्मा थे, जिन्होंने उस सुअर की गैंग को खदेड़ा। कानपुर वाले बहुत कुकुर प्रेमी होते थे। कानपुर के ग्रीन पार्क स्टेडियम में क्रिकेट मैच के दौरान कुत्तों का मैदान में घुस जाते थे, जब भी ऐसा होता है, तो लगता है जैसे कुत्ते कह रहे हों: "यार, तुम लोग कब से एक ही गेंद के पीछे भाग रहे हो? थोड़ी देर हमें भी खेलने दो! हम भी तो स्टार परफॉर्मर हैं इस स्टेडियम के!" इकाना स्टेडियम ने यह मज़ा भी छीन लिया।

जब भारत में ब्लॉग लिखने की परंपरा शुरू हुई, लोग अपने-अपने अनुभव, यादें और विचार पहली बार खुले मंच पर रखने लगे। उसी दौर में हमने भी कलम उठाई और सबसे पहले लिखा तो अपने कानपुर के बारे में | कानपुर माहात्म्य पर जब कभी भी फुर्सत में चर्चा हो, तो निवेदन है दशकों पहले हमारे द्वारा  लिखा गया कानपूर श्रृंखला का दस्तावेज़ पढ़ियेगा।  

हम कानपुर वाले भी 'तीन ताल' का हिस्सा हैं, हमारे दिल भी इसी धुन पर धड़कते हैं। इसलिए, एक बार कानपुर को भी मंच पर बुलाइए, ताकि हर आवाज़ बुलंद हो सके और हम भी कह सकें — कसम कानपुर की, गर्दा उड़ा देंगे ! हम चाहते हैं कि तीन ताल के तीनों शिकारी स्वादिष्ट समोसे, ज़िंदादिल ज़िंदगी को महसूस करें और कानपुर की अनोखी कहानियों को अपने मजाकिया अंदाज़ में पेश करें। पत्र इन प्रसिद्ध निमंत्रण की पंक्तियों  के साथ खत्म करता हूँ : भेज रहा हूँ स्नेह निमंत्रण, प्रियवर तुम्हें बुलाने को। हे मानस के राजहंस, तुम भूल न जाना आने को।।

असल में, सोच-समझ कर लिखना जरूरी होता है, लेकिन इस बार जल्दबाजी में कुछ कहा गया है,  क्यूंकि सुरूर छा रहा है।  तीन ताल के सभी साथियों को मेरा कोटि-कोटि प्रणाम।  जय हो, जय हो, जय हो! 

--- यायावर  ( टीटी स्टाफ)

Wednesday, September 17, 2025

2nd Letter to Teen Taal (तीन ताल को द्वितीय ख़त)

तीन ताल के सभी साथियों को जय हो, जय हो, जय हो!  कमलेश ताऊ, कुलदीप सरदार और आसिफ़ खान चा को मेरा नमन!  "जस मतंग तस पादन घोड़ी, बिधना भली मिलाई जोड़ी" — ये लोक कहावत का आशय है कि जैसे हाथी को उसके पांव के अनुसार घोड़ी मिलनी चाहिए, उसी तरह विधाता समान लोगों की जोड़ी बना देता है। मेरे जैसे काम में उलझे हुए लोगों का तीन ताल का दर्शक बनना सुंदर संयोग है !  

मेरे में लखनऊ की किस्सागोई नहीं है ना ही है हरियाणा का ठेठ अंदाज़ ! पर १०० -२००  घण्टे सुनते सुनते लिखने का मन हो ही गया। परसाई जी की बात याद आयी : जो प्रेमपत्र में मूर्खतापूर्ण बातें न लिखे, उसका प्रेम कच्चा है, उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए पत्र जितना मूर्खतापूर्ण हो, उतना ही गहरा प्रेम समझना चाहिए।  अतः बहुत प्रेम से  तीन ताल को लिखा प्रथम ख़त लिखा जो प्रोग्राम में पढ़ा नहीं गया, ना जाने किस गलियारों में खो गया। मन में बहुत तीस उठी। कई लेखक मानते हैं कि संपादकीय अस्वीकृति व्यक्तिगत पसंद या बाजार की मांग के कारण होती है, पर मुझ नौसिखिए को पता है कि यह अस्वीकृत चिठ्ठी में बकैती की कमी है।  

हिंदी साहित्य में कवियों और संतों ने अस्वीकृति को केवल अंत नहीं, बल्कि आत्म-विकास का द्वार माना है। अस्वीकृति मनुष्य के सबसे गहरे  और कभी कभी  कटु अनुभवों में से एक  होती  है। फिर भी, यही अस्वीकृति हमें आत्मबल और धैर्य का सबसे गहरा पाठ पढ़ाती है। जैसे तीन ताल में अपेक्षित चिट्ठी  नहीं  पढ़ी  जाती है  तो यह अस्वीकृति  एक  मन में  अधूरापन  छोड़ देती  है।  लेकिन इसी अधूरेपन में एक नई चिठ्ठी  का बीज छिपा होता है।

"मेरे पास दो रास्ते थे – ‘हारे को हरिनाम’ और ‘नीड़ का निर्माण फिर से’! सो उम्मीद का रास्ता चुनकर द्वितीय ख़त लिख रहा हूँ।  यह द्वितीय कह रहा हूँ दूसरा नहीं क्यूंकि पहला प्रेम हो या पहला पत्र अद्वितीय होता है ! खान चा की गवाही चाहूंगा ! 

खैर  क़िस्सागोई मुझसे आती नहीं और  बातों को सँवारने का हुनर नहीं है मेरे पास, बस जैसे मन में आता है वैसे ही उगल देता हूँ।  पिछली चिट्ठी धीरे-धीरे आंच पर पकाए हुए मटन जैसा थी, लेकिन यह लेख तो फास्ट फूड है, जो एक समझदार मगर थोड़ा तड़कते हुए अहंकार के कारण जल्दी-जल्दी तैयार हो गया है। इस लेख में थोड़ा घमंड भी मिला है, जिससे बातों की गहराई कुछ कम रह गई है। 

मुझे तीन ताल क्यों पसंद है? तीन ताल  मेरे लिए एक थियेटर ऑफ़ द एब्सर्ड है ! यह एक ऐसा संवाद है, जो अक्सर  साधारण बातों को भी असामान्य बना देता है।  लगता है जैसे हम लोग मित्रों से चाय की दुकान या नाई की दूकान जैसे  गैर-औपचारिक माहौल में बैठे हंसी ठिठोली कर रहे हैं। 

लिखने की तो नहीं, मेरी पढ़ने की बहुत आदत थी । मेरी शरारतों के बावजूद घरवालों की कोशिशों का ही नतीजा था कि तक़रीबन सात साल से रविवार अख़बार का बच्चों का पन्ना, चंपक, सुमन सौरभ, नंदन, बालहंस, नन्हे सम्राट और कामिक्स पढ़ने की आदत हो गयी थी । बचपन में  दादी और बाबा से अनगिनत कहानी सुनी ! उन दिनों को याद करते हुए कई बार मैं अपने से पूछता हूँ - हिंदी के प्रति प्यार के पीछे सबसे बड़ा प्रेरक तत्त्व क्या था ? मुझे एक ही जवाब मिलता है - वे मेरे बचपन के दिन थे और मेरे बेशुमार कहानी सुनने के सपने थे।उसी समय में हिंदी से मन, वचन और कर्म से भावनात्मक लगाव हो गया

अब हिंदी का प्रोफेशनल उपयोग जीवन में नहीं है। यक़ीन करें, मैंने हिंदी में कहानी सुनना और सपने देखना अब भी नहीं छोड़ा है!  ऑनलाइन के ज़माने में भी कोशिश करके साल १-३ किताब हिंदी में जरूर पढता हूँ।  आज जब मैं "तीन ताल" के पॉडकास्ट में ताऊ, चा और सरदार की बातें सुनता हूँ, तो मेरे मन में बचपन की मीठी यादें, हिंदी भाषा की मोहब्बत और घर के बुजुर्गों की छवि एक साथ जीवंत हो उठती है |  हाल ही में बीते हुए हिंदी दिवस  पर सभी हिंदीभाषी और हिंदी प्रेमियों को हार्दिक शुभकामनाएं। 

बाकी तो राजनैतिक दलाली और घटिया दलीलों से भरे न्यूज़ के दौर में बकवास सुनना एक ब्रह्मज्ञान प्रतीत होता है। अब लगता है'क्या बकवास है' या तो निहिलिज़्म की तरफ पलायन करते हुए लोगों का जाप है या फिर जेन ज़ी में क्रांति के बीज बोते हुए ताऊ का महामंत्र ! जय हो, जय हो, जय हो! 

--- यायावर  ( टीटी स्टाफ)

Monday, September 8, 2025

Letter to Teen Taal (तीन ताल को ख़त लिखा)


तीन ताल के सभी साथियों को जय हो! जय हो जय हो! कमलेश ताऊ, कुलदीप सरदार और आसिफ़ खान चा को मेरा नमन! मेरा मुकाम शहर दिल्ली है और जड़ें आजमगढ़ से जुड़ी हैं।

मेरे लिए 'तीन ताल' की चर्चा व्यंग्य, ज्ञान और पुरानी यादों की एक त्रिपथगा है। एक-एक एपिसोड अलग-अलग रंगों से भरा रहता है—कभी पाणिनी बाबा की विद्वता झलकती है, कभी नास्त्रेदमस जैसा सत्य कहने वाले ताऊ हमें चौंका देते हैं, तो वहीं रोमांटिक खान चा अपनी नजाकत और मोहब्बत भरे लहजे से दिल जीत लेते हैं। कुलदीप का संचालन पूरे पॉडकास्ट को एक अलग चमक देता है।  

इन एपिसोड्स में Bizzare उत्तेजक खबरों से लेकर भू-राजनीतिक (geopolitical) विश्लेषण, और स्थानीय—पूर्वांचल, पटना, वाराणसी, कानपुर, इलाहाबाद, दिल्ली, नोएडा, लखनऊ और भोपाल तक की घनघोर चर्चाएं सुनना अद्भुत अनुभव है। ऐसा लगता है जैसे छोटी-बड़ी सारी दुनिया तीन ताल की जमघट पर सिमट आई हो। सिनेमा, पुराने गाने और दुध्दी के किस्से तो खान चा की स्पेशलिटी उभार लाते हैं। जब-जब सरपंच और अन्य मेहमान इसमें जुड़ते हैं, चौपाल का मज़ा कई गुना बढ़ जाता है।  

हमारे जीवन में काम, आलस्य और आराम में संतुलन होना चाहिए। मेरे जीवन को आलस बहुत प्रभावित करता है। मेरे हिसाब से प्रारब्ध की पराकाष्ठा और पुरुषार्थ का लोप आलस है! आलस्य को मैं एक अवरोध के रूप में नहीं देखता, बल्कि यह जड़ता की एक अवस्था है, जिसे न्यूटन ने परिभाषित किया था। इसलिए लिखते-लिखते यह आर्टिकल एक साल लग गए और मुकाम दिल्ली से बेंगलुरु हो गया।  

तीनताल एक जादुई टाइम मशीन है, जो हमें 1970 से 2000 के सुनहरे दौर की यादों में ले जाता है। नॉस्टैल्जिया एक अजीब सी फीलिंग होती है, बढ़ती उम्र के साथ यादों को सुनकर जीवन में शक्कर सा घुल जाता है । यह पॉडकास्ट कुछ जिया हुआ लम्हा, कुछ सुना हुआ किस्सा और बहुत से बिखरे हुए पलों को समेट देता है।  

सच कहूं तो मेरी ऑफिस यात्रा और घर वापसी में तीन ताल मेरी थकान हल्की कर देता है। कभी हंसी, कभी गहन चिंतन, तो कभी आध्यात्मिक सुकून—सब इसमें मिलते हैं। चर्चाओं की सहजता और शैली इतनी आत्मीय है कि यह सिर्फ खबरें या विचार-विमर्श का माध्यम नहीं, बल्कि अपनेपन भरा बकैती का अड्डा लगता है।  आप सब जिस सहजता से आलस्य, आराम, या फिर संघर्ष जैसे गहरे दार्शनिक पहलुओं से लेकर हलकी-फुलकी नोकझोंक और स्थानीय गप तक पहुँचते हैं, वह अद्वितीय है। यह मेरे जैसे प्रवासी (बिदेशिया) के लिए सिर्फ पॉडकास्ट नहीं, बल्कि जीवन, विचार और अनुभवों का एक अनवरत मेला है, जिसमें हर बार कुछ नया सीखने और जीने को मिलता है।  एपिसोड में अजीबोगरीब विषयों के बारे में हुई बातों से दिमाग में सच में चकरघिन्नी सी होने लगता है। 

सालों पहले एक जापानी फिल्म देखी थी, "Women in the Dunes" (1964)। यह फिल्म एक ग्रामीण रेगिस्तानी इलाके में फंसे एक व्यक्ति की कहानी है। फिल्म में एक शहरी कीट विज्ञानी अपने शहरी जीवन की आपाधापी से दूर एक रेगिस्तानी इलाके में कीड़ों की खोज करने जाता है। वहां उसे एक गाँववासी एक रेत के गड्ढे में एक महिला के साथ रात बिताने का सुझाव देता है। मगर अगली सुबह नायक पाता है कि उसे इस गड्ढे में बंधक बना लिया गया है। उसे मजबूरन इस महिला के साथ रेगिस्तान की रेत साफ करने का काम करना पड़ता है ताकि उनका घर रेत में दब न जाए। जीवन की अर्थहीन दिनचर्या और अस्तित्व का संघर्ष उस व्यक्ति को ऐसे जाल में फंसा देता है, जिसमें वह बिना किसी वास्तविक प्रगति के उलझा रहता है। फिल्म देखते-देखते उसके नायक के साथ मुझे भी धीरे-धीरे एहसास होता है कि उसका यह संघर्ष हमारी रोज़मर्रा की जिंदगी जैसा है—एक अंतहीन और अर्थहीन कार्य, जिसमें वह नायक की तरह हर रोज़ बंधक बनता चला जाता है।

रोजमर्रा के जीवन में संघर्ष, आलस्य और आराम के बीच एक अजीब सा संतुलन बनता है। आलस्य तो खो ही गया है और आराम की यह तलाश एक अनवरत चक्र में फंसी रखी है। आलस सुस्ती, अनिच्छा, और शिथिलता नहीं है, यह भूपेंद्र सिंह द्वारा गाया गया "दिल ढूँढ़ता है फुर्सत के रात दिन" है, जिस आलसी पल में, मन और तन निष्क्रिय होता है।

इसी आलस और अर्थहीन दिनचर्या के बीच कोई भी एपिसोड कहीं से भी सुन लो, इतना यह आत्मसात हो गया है।  मोहम्मद रफ़ी के गीत "तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है" को मैं तीन ताल को ही समर्पित करता हूँ। 

तीन ताल के सभी रचनाकारों और दुनिया भर में फैले साथियों को मेरा कोटि-कोटि प्रणाम। कभी कभी किताबों पर भी सुझाव दिया करिये ।‌ ऐसे ही आगे भी आप लोग जीवन, विचारों और अनुभवों की सरल, सुबोध और सजीव चर्चा करते रहें। जय हो, जय हो, जय हो! 

--- यायावर  ( टीटी स्टाफ)

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गुस्ताख़ी माफ पर समर्पित एक तुकबंदी:  

तीन ताल से पहले सत नहीं था,  
असत भी नहीं,  
इंटरनेट भी नहीं, 5जी भी नहीं था।  

छिपा था क्या? कहाँ? किसने ढका था?  
उस पल तो अगम अतल सोशल मीडिया भी कहाँ था।  

तीन ताल का कौन है करता?  
कर्ता है या विकर्ता?  
ऊँचे आजतक रेडियो में रहता,  
सदा अतुल जी बना रहता।  

नौरंगी सचमुच में जानता,  
या नहीं भी जानता,  
है किसी को नहीं पता,  
नहीं पता, नहीं है पता।