तीन ताल के सभी साथियों को जय हो, जय हो, जय हो! मेरी चौथी चिट्ठी आप सबके मानसिक स्वास्थ्य को समर्पित है! किसी तीन तालिये ने कहा था "तीन ताल के घाट पे, भईया, बकबक की भीड़, गपशप के लिए जुट गए, राजा, रंक, फकीर" ! राजा, रंक, फकीर के साथ इस बार कुछ लिबरल्स ने तीन ताल को सुना। उनको बहुत बहुत साधुवाद। यह विविधता हमारे समाज की जटिलता को दर्शाती है, जहाँ हर आवाज़, चाहे वह राजा हो या आम आदमी, संवाद की साझा धुन में एक साथ जुड़ती है।
आज मैं बात करूँगा उस चउतरफा चर्चा की, जहां मानसिक स्वास्थ्य की व्यथा और चिंतन ने ताऊ-वादी दर्शन और उदारवादी विचारों के बीच टकराव को जन्म दिया! कमलेश ताऊ, आसिफ़ ख़ांचा और कुलदीप सरदार मेंटल हेल्थ पर चर्चा कर रहे थे और ताऊ ने दीपिका पादुकोण को भारत की पहली मेंटल हेल्थ एम्बेसडर बनाए जाने पर तंज कसा कि यह सब एक बड़प्पन दिखाने का तरीका है, और थेरेपी को अमीरों का स्टेटस सिंबल बताया। इससे सोशल मीडिया पर लोग इतने खफा हुए जैसे किसी ने रंगदारी नहीं दिया हो! लिबरल्स ने शर्मनाक घोषित क़िया, एपिसोड कैंसिल कराने और बायकॉट की धमकी दे डाली। फिर भी कुछ हुआ नहीं। तीन ताल के सुनाने वाले ठसक से बड़े और मिजाज से प्यारे होते हैं इसलिए वो ताऊ के साथ खड़े मिले । जन जन का नारा है, तीन ताल हमारा है का उदघोष सोशल मीडिया पर गूंज उठा।
पहले तीन ताल की मूल भावना हास्य रस है और ये बैठकी ग़ज़ब का मंजर है! एक तरफ़ गांधी जी की गंभीर फोटो, दूसरी ओर मर्लिन मुनरो की मुस्कुराती तस्वीर, और बीच में तीन ताल पॉडकास्ट का स्टूडियो — जहाँ विचार ऐसे टकरा रहे हैं जैसे समोसे की प्लेट पर चटनी और मिर्च। गांधी जी के पीछे लिखा है "सादा जीवन, उच्च विचार", और मुनरो की तरफ़ से झलक रहा है "ग्लैमर भरा विचित्र संसार". बीच में होस्ट लोग बैठे हैं और तीन ताल का ध्वज-पताका ऐसे फहरा रहा है मानो विचारों का स्वतन्त्रता संग्राम चल रहा हो।
तीन ताल, सादा जीवन और बिज़ारे विचार का तुग़लक़ी संगम है। ताऊ-वादी दर्शन हर समस्या को तुगलकी विचार से सोचने के नाम है ! और ताऊ-वादी विचारक विरोधों से अपनी दिशा नहीं बदला करते। और जो हर रोज़ रुख़ और तवज्जो पलटते रहते हैं, वे ताऊ-वादी विचारक नहीं होते। ताऊ का सोशल मीडिया पे अपने विचार पे अडिग रहते देखना अच्छा लगा, एक एक जुमला याद आया, "वो उसूल ही क्या जिसकी कीमत ना चुकानी पड़े!
जब फ्री स्पीच का ध्येय रख कर अति गंभीर से लेकर अनौपचारिक तक सब पे बात हो रही है, ये है रुदाली रुदन क्यों ! रूढ़िवादी कहते हैं धर्म पे व्यंग्य न बोलिये और लिबरल्स बोलते हैं मेन्टल हेल्थ पे व्यंग्य न बोलिये। आज लिबरल्स हों या रूढ़िवादी — दोनों पक्षों ने विचार को नारे में बदल दिया है। जब भाषा केवल दलीलों का हथियार बन जाती है, तब स्वतंत्रता मर जाती है। असली बोलने की क्षमता वही है जो किसी खेमे में रहते हुए भी उसके झूठ को पहचान सके। सोशल मीडिया पर कितनों को मैं सूरज समझ बैठा था, बाद में मालूम हुआ वो तो महज़ दिया निकले। कभी रंग बदलते हैं, कभी रुख़। मूल बात यह है कि कुछ लोगों की नैतिकता ऐसा आईना बन गई है, जिसमें हम स्वयं को चमकदार और श्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं, पर दूसरों की खामियों को ही देखते हैं। बाकी मेरा आपका जीवन समाप्त हो जाएगा, आउटरेज ख़त्म नहीं होगा।
वैसे देश में मानसिक स्वास्थ्य पर बात करने पे हिचक है I मेन्टल हेल्थ को नकार देनी वाली बातें अक्सर आकर्षक लगती हैं, लेकिन उनके असली मायने और वास्तविकता करीब जाकर ही समझ आती है यहाँ हर समस्या का समाधान है — थोड़ा पॉज़िटिव सोचो और चाय पी लो। विशेषज्ञों की जगह अब मोटिवेशनल स्पीकर बैठेंगे, जो हर तीसरे वाक्य में कहेंगे, “तुम्हारा मन कमजोर नहीं, तुम्हारा वाईफाई स्लो है |
बुजुर्गों ने कहा है... चिंता चिता समान है! — बस फर्क इतना है कि अब ये चिता वाई-फाई से जलती है। लोग सुबह उठते ही अपने “स्ट्रेस लेवल” को फिटनेस बैंड की तरह ट्रैक करते हैं, नींद नहीं आती तो मेडिटेशन ऐप डाउनलोड कर लेते हैं, और फिर उसी ऐप की रिव्यू पढ़कर और चिंतित हो जाते हैं। ऐसा लगता है मानो मानसिक स्वास्थ्य अब कोई आत्मिक यात्रा नहीं, बल्कि सब्सक्रिप्शन प्लान हो गया है — महीना दो, चिंता लो, चिता स्थगित!
ऊपर से विज्ञापन के तौर पर ब्रांड एंबेसडर बनाए जाने के मुद्दे पर व्यंग्यपूर्ण और गंभीर चर्चा को भी कुछ ज्वलनशील लोगों तटस्थता की जगह उग्रता से ले लेते हैं | तीन ताल का अनुभव, मानो अंतर्मन की नदी में प्रवाहित एक सतत संवाद है, जिसमें हर विचार्रों की हर लहर — चाहे वह गंभीर हो या चुटीली, पवित्र हो या सांसारिक, सतही हो या गहरी, आपके दिमाग को स्फूर्ति देती है | ऐसा सुनना सिर्फ बातें सुनना नहीं, बल्कि उनकी सोच और महसूस को समझना है। जब हम ताऊ को ध्यान से, लंबे समय तक सुनें, तो ऐसा लगता है जैसे वो हमारे मन में उतर गए हों।
यह संवाद, अपनी विविधता और गहराई में समृद्ध, सिर्फ बातचीत नहीं बल्कि सहानुभूति और समझ का जीवंत आदान-प्रदान बन जाता है। इस चौथे खत के अंत में बस यही कहना है कि आप लोगों की जुगलबंदी शानदार हैं। आने वाले एपिसोड में हाथ जोड़कर अनुरोध है कि आप हिंदी क्षेत्र से दूर देश बिदेश में रह रहे हिंदी भाषियों के जीवन-संघर्ष और मानसिक स्वास्थ पर भी प्रकाश डालें—क्योंकि बहुत से तीन तालिये दूर- सदूर से आपको सुनते हैं। तीन ताल के सभी साथियों को मेरा कोटि-कोटि प्रणाम। जय हो, जय हो, जय हो!
--- यायावर ( टीटी स्टाफ)
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